यौगिक कर्म

 

 

    योग के दृष्टिकोण से, तुम जो करते हो वह नहीं बल्कि तुम कैसे करते हो वह सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है ।

 

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    कर्म का इतना अधिक महत्त्व नहीं है महत्त्व है उस चेतना का जिससे कर्म किया जाता है । इसलिए सब ठीक है, अपने- आपको यातना न दो । मेरा प्रेम हमेशा तुम्हारे साथ है ।

२४ मार्च, १९६४

 

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    आध्यात्मिक जीवन के दृष्टिकोण से तुम जो करते हो उसका सबसे अधिक महत्त्व नहीं है, महत्त्व है तुम जिस तरह करते हो उसका और उस चेतना का जो तुम उसमें लगाते हो । भगवान् को हमेशा याद रखो और तुम जो कुछ करोगे वह 'भागवत उपस्थिति' की अभिव्यक्ति होगा ।

 

    जब तुम्हारे सभी कर्म भगवान् को समर्पित होंगे तब ऐसे कोई कर्म न रहेंगे जो उच्च हों अथवा निम्न हों । सबका समान रूप से महत्त्व होगा-उन्हें समर्पण द्वारा दिया गया मूल्य ।

 

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     तुम जो कुछ भी करो वह उपयोगी हो उठता है यदि तुम उसमें सत्य-चेतना की एक चिनगारी रख दो ।

 

     तुम जो कर्म करते हो उसकी अपेक्षा तुम्हारे अन्दर जो चेतना है वह बहुत ज्यादा महत्त्वपूर्ण है । और अगर सत्य-चेतना द्वारा किये जायें तो सबसे अधिक निरर्थक दीखनेवाले कर्म भी बहुत सार्थक हो उठते हैं ।

१० अगस्त, १९६६

 

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     कर्म अपने- आपमें नहीं बल्कि जिस भाव और चेतना से किये जाते हैं वही उसे यौगिक क्रिया बनाते हैं ।

 

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